कभी - कभार जीवन की लय टूट जाती है। बे- शक आदमी अज़ीमतर शख्शियत का मालिक है अकूत क्षमताएं हैं उसमें। शायद जीवन में सब कुछ स्ट्रीमलाइन हो जाना भी है लय को तोड़ता है
हरे कृष्णा शिवे !जैजै श्री शिवे !जयतिजय शिवे ! कभी - कभार जीवन की लय टूट जाती है। बे- शक आदमी अज़ीमतर शख्शियत का मालिक है अकूत क्षमताएं हैं उसमें। शायद जीवन में सब कुछ स्ट्रीमलाइन हो जाना भी है लय को तोड़ता है हर चीज़ का समय निर्धारित हो जाना एक रसता पैदा करता है ,रिजीडिटी को भी जन्म देता है। समबन्ध जो भी हो मनोविकारों से दीर्घावधि ग्रस्त चले आये व्यक्ति के साथ तालमेल बिठाते -बिठाते कभी एकरसता महसूस होने लगती है। संशाधन कमतर से लगने लगते हैं। तिस पर यदि शारीरिक अस्वस्था भी व्यक्ति को अपनी गिरिफ्त में ले ले तब सब कुछ और अपूर्ण सा लगने लगता है। कुछ ऐसे ही पलो के गर्भ में क्या है इस की टोह लेने की फिराक में लिखने को बाध्य सा हुआ हूँ। कुछ कहने कुछ सुनने की ललक भी प्रेरित करती होगी लेखन को ?लगता है इस तालमेल की कमी का एक ही समाधान है हम अधिकाधिक सद्भावना मनोरोग संगी के संग रखें ,उसे अक्सर प्रोत्साहित करने ,तंज बिलकुल न करें जहां तक मुमकिन हो व्यंग्य की भाषा से परहेज़ रखें। तुम्हें क्या लगता है ? वीरुभाई !