हरे कृष्णा शिवे !जैजै श्री शिवे !जयतिजय शिवे ! कभी - कभार जीवन की लय टूट जाती है। बे- शक आदमी अज़ीमतर शख्शियत का मालिक है अकूत क्षमताएं हैं उसमें। शायद जीवन में सब कुछ स्ट्रीमलाइन हो जाना भी है लय को तोड़ता है हर चीज़ का समय निर्धारित हो जाना एक रसता पैदा करता है ,रिजीडिटी को भी जन्म देता है। समबन्ध जो भी हो मनोविकारों से दीर्घावधि ग्रस्त चले आये व्यक्ति के साथ तालमेल बिठाते -बिठाते कभी एकरसता महसूस होने लगती है। संशाधन कमतर से लगने लगते हैं। तिस पर यदि शारीरिक अस्वस्था भी व्यक्ति को अपनी गिरिफ्त में ले ले तब सब कुछ और अपूर्ण सा लगने लगता है। कुछ ऐसे ही पलो के गर्भ में क्या है इस की टोह लेने की फिराक में लिखने को बाध्य सा हुआ हूँ। कुछ कहने कुछ सुनने की ललक भी प्रेरित करती होगी लेखन को ?लगता है इस तालमेल की कमी का एक ही समाधान है हम अधिकाधिक सद्भावना मनोरोग संगी के संग रखें ,उसे अक्सर प्रोत्साहित करने ,तंज बिलकुल न करें जहां तक मुमकिन हो व्यंग्य की भाषा से परहेज़ रखें। तुम्हें क्या लगता है ? वीरुभाई !
किसी भी समाज में सब कुछ मीठा -मीठा ही हो कड़वा तीक्षण कसैला न हो ये ज़रूरी नहीं है अमरीकी समाज भी इसका अपवाद कैसे हो सकता है। लेकिन एक फर्क है वहां अंदर की बात अंदर ही रहती है। समुन्दर अपना स्तर बनाये ही रहता है कितना भी जल बढे या घटे अंदर की हलचल बाहर नहीं आती। यही हाल अमरीकी समाज और अमरीकी रिसालों का है मसलन न्यूयॉर्क टाइम्स कोविड संकट के दौरान भारत के श्मशान घाटों की तस्वीर तो मुख पृष्ठ पर सजाता है लेकिन ट्रम्प के अमरीका का कोविड के दरमियान क्या हाल हुआ किसी से छिपा न रह सका। पश्चिमी प्रेस वाम झुकाव लिए रहता ही है दोगलाई उसके चरित्र में है। अब अदबदाकर एक बीबीसी वृत्त चित्र को खूब उछाला जा रहा है। और जबकि इसमें नया कुछ भी नहीं बतलाया गया है कल भी "वेस्टर्न लेफ्टीया तड़का मीडिया" का सुलूक यही था आज भी वही है फर्क इतना है इस मर्तबा भारतीय न्यायिक शिखरको ,एक संविधानिक संस्था तीसरे स्तम्भ को ही निशाने पे ले लिया गया है यह आकस्मिक नहीं है कल का एक शहज़ादा आज इसी वृत्त चित्र की ही भाषा बोल रहा है। भारत जोड़ने का यह प्रयास अप्रतिम है नायाब है साहब ऊपर से तुर्रा ये महम मोहब्बत की ज